
वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।
…
खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था ‘कहो’,
एक में लिखा था ‘सुनो’।
अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही
वही पर्ची जिस पर लिखा था ‘सुनो’।
…
वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
‘कहना-सुनना’
नहीं हैं केवल क्रियाएं।
…
राजा ने कहा, ‘ज़हर पियो’
वह मीरा हो गई।
ऋषि ने कहा, ‘पत्थर बनो’
वह अहिल्या हो गई।
प्रभु ने कहा, ‘निकल जाओ’
वह सीता हो गई।
चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
वह सती हो गई।
…
घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ कभी नहीं लगी
वह पर्ची,
जिस पर लिखा था, ‘ कहो ’।
-शरद कोकस
रूचि जी ,नमस्कार , जानना चाहता हूँ यह कविता आपको कहाँ से प्राप्त हुई ? कृपया मेरे फोन नंबर 8871665060 पर मुझसे संपर्क करें . वस्तुतः यह कविता मेरी है जो वागर्थ पत्रिका के मार्च अंक में प्रकाशित हुई है . सादर – शरद कोकास
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Dear Sharad .. I have received this poem from a close source .. however if this is your creation then I must give you full credit for this wonderful poem .. please do share your thoughts on my blog
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कृपया अपना फोन नंबर या मेल एड्रेस दें , इस कविता का पूरा किस्सा आप को भेजना चाहता हूँ . आपके इस ब्लॉग का उल्लेख भी एक अखबार सुबह सवेरे के एक लेख में श्री गिरीश उपाध्याय ने किया है .
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Can I have your email id please
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कृपया इस कविता के सम्बन्ध में मुझसे संवाद करें . सादर
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Gjb Ruchi ji
Aap talented or smjhdari ka khajana ho
Matr shkti hi lakshmi durga radha or sita hai
Isko pd liya jano sb pd liya
Ye grah gud geeta hai
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Dhanyawaad
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8 मार्च महिला दिवस के दिन तो हद ही हो गई । जाने कितने मोबाइल्स में यही कविता थी । उसी दिन मेरे पास भोपाल एक अखबार सुबह सवेरे के संपादक श्री गिरीश उपाध्याय का फोन आया , वे भी वास्तविकता जानना चाहते थे । उन्होंने मुझसे विस्तार से बात की और अगले ही दिन अपने अखबार में एक लेख लिखा है । उस लेख से कुछ पंक्तियाँ मैं यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा ।गिरीश जी लिखते हैं ” अब जैसी कि मेरी आदत है मित्रों को भेजने से पहले गूगल गुरु पर इसके रचनाकार के बारे में पुष्टि करनी चाही ,वहाँ भी इसे अमृता प्रीतम द्वारा ही रचित दर्शाया जा रहा था । बस यहीं मैं गच्चा खा गया । मैंने उस जानकारी को सच मानते हुए यह कविता अमृता प्रीतम के नाम से पोस्ट कर दी । दिन में हमारे एक पाठक का सन्देश आया कि यह कविता दरअसल शरद कोकास की है जो अमृता प्रीतम के नाम से चल रही है । मेरा चौंकना स्वाभाविक था ।मैंने तुरंत फिर से गूगल की ही शरण ली । आखिरकार किन्ही रूचि शुक्ला जी की वेबसाईट पर ‘नारी’ शीर्षक से अमृता प्रीतम के नाम से यह कविता प्रकाशित दिखी । नीचे कमेन्ट बॉक्स में श्री शरद कोकास का कमेन्ट छपा था । उन्होंने लिखा था – रूचि जी नमस्कार , जानना चाहता हूँ यह कविता आपको कहाँ से प्राप्त हुई है ? कृपया मेरे फोन नम्बर 8871665060 पर मुझसे संपर्क करें । वस्तुतः यह कविता मेरी है जो वागर्थ पत्रिका के मार्च अंक में सन ९८ में प्रकाशित हुई है । सादर -शरद कोकास । ”
गिरीश जी आगे लिखते हैं – “मैंने तुरंत शरद कोकास को फोन लगाया उनसे पुष्टि की और तत्काल भूल सुधार करते हुए फेसबुक पर खेद व्यक्त किया । कहने को किस्सा यहीं ख़त्म हो जाता है लेकिन शायद नहीं । यहाँ से इस किस्से की दो धाराएँ निकलती हैं पहली धारा हमेशा की तरह मुझे यह कहने पर मजबूर करती है कि आंख मूंदकर सोशल मिडिया पर भरोसा मत करो । पता नहीं कब कौन सी ग़लत सूचना किस रूप में आपके दरवाज़े पर पटक दी जाये । यह तो भला हो पढ़ने -लिखने से वास्ता रखने वाली मित्र मंडली का जो ऐसी गलतियों पर तुरंत टोक देती है ।”
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Shrad kokas .. these are two sides of coins .. I truly appreciate this piece of poetry but I too got confused when I found it as Amrita Pritam written ..
Even some of my own piece of writing is coming back to me from various sources . The only way is to copywrite but that’s too cumbersome
Thanks Girish ji for pointing out at the error
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